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पानी की कहानी

बचपन में सोचते थे  सिर्फ प्यास बुझाता पानी जब समझ के साथ आई जवानी  तब समझने लगे हैं पानी की कहानी वो गीले बालों का पानी वो मखमली से गालो पर पानी एक होश भूलाता पानी एक दिल जलाता पानी   गालों से लबों पर बहता पानी  तूम चुप रहो है सब कुछ कहता पानी तेरी गर्दन पर खिलखिलाता पानी  मेरे मन में छटपटाता पानी मेरी सांसो का अटकता पानी  पसंद नहीं बस तेरी आंखो का पानी कहीं उलझन में कहीं सुलझन में पर चीखती बहुत है पानी की कहानी मुट्ठी में जो आए ना किसी की किस्मत पानी  मेरी जेब है खाली कैसे घर जाऊं मैं क्या बच्चों को बस पिलाऊँ पानी गरीब के मटको में पीने को नहीं है जनाब के घर गड्डों में नहाने को इतना पानी वो डराते हैं जमीं घट रही है समुद्रों का बढ़ता पानी समझ से परे है फिर भी  क्यों बोतलों में बिकता पानी  किसी को नीला किसी को काला पानी सबकी अपनी-अपनी पानी की कहानी तपती धूप में किसी बदन पर आया पानी निहारते जालिमों के मुंह में आया पानी देखा,पकड़ा,खींचा उनकी प्यास बुझा गया पानी लेकिन जिंदगी किसी की अब हो गई है पानी-पानी  ओ बेशर्म ओ बेहया  तुझे डुबने को ना मिला पानी लोग कहते हैं आग बुझाता लेकिन मैंने आग लगा

कोरोना काल में वो एक दिन

शरद को कलकत्ता से गाजियाबाद आए 12 दिन हुए थे। सरकारी क्वार्टर में क्वारंटाइन का दूसरा सप्ताह चल रहा था। शरद के बाबूजी श्री राजेश शर्मा दिन में दो बार फोन करके उसका हाल जानते थे। हर बार एक ही चेतावनी दी जाती थी। " देखो कुछ दिन बचे हैं इस अज्ञातवास में। घर आते ही तीसरे दिन शादी हो जानी है। किसी से ज्यादा मेलजोल करके वायरस ना ले बैठना।" शरद तो बस 'जी बाबूजी,जी बाबूजी' कहता रहता जैसे बहुत ही आज्ञाकारी लड़का है। बात खत्म करके शरद छत की तरफ सीढ़ियां चढ़ने लगा। बाहर घूमने की मनाही है लेकिन छत तो अपनी है। चलो! हल्की सी धूप ही ताप लेते हैं। आज छत का नजारा बाकी दिनों से कुछ अलग था। पीली साड़ी पहने एक अनजान लड़की अपने गीले बालों को सुखा रही थी। सुनहरी धूप में चमकती पीली साड़ी सरसों के सुहाने खेत से लग रहे थे। लंबे बाल जैसे गेहूं की पकी बालियां आपस में सर सर कर रही हो। " यह बला कौन है? इतने दिनों से तो यहां दिखाई नहीं दी।' शरद मन ही मन सोचने लगा। शरद की एकटक देखती निगाहों को अनजान लड़की ने भाप लिया।  " क्या हुआ जनाब? अजीब शक्ल है क्या मेरी?" " अरे नहीं नही